राजद-कांग्रेस: 28 साल का साथ-सफर या तकरार? 'कभी हां-कभी न' का चुनावी असर
बिहार में इस साल की अंतिम तिमाही में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर सरगर्मियां तेज हैं। जहां सत्तासीन एनडीए में शामिल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जनता दल यूनाइटेड (जदयू), लोकजनशक्ति पार्टी (लोजपा) समेत सभी दल एकसाथ आने को लेकर प्रतिबद्धता जता चुके हैं, वहीं विपक्षी महागठबंधन में भी गठबंधन को लेकर बातचीत जारी है। कुछ समय पहले नई दिल्ली में राजद और कांग्रेस की आखिरी बैठक में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने बिहार में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव से मुलाकात की। बताया जाता है कि इस बैठक में दोनों पार्टियों के बीच सीट साझा करने पर चर्चाएं हुईं, हालांकि कुछ भी ठोस नहीं कहा गया। तेजस्वी ने बैठक के बाद कहा कि बिहार में इस बार एनडीए की सरकार नहीं बनने जा रही। वहीं, सांसद मनोज झा ने कहा था कि विधानसभा चुनाव के लिए महागठबंध पूरी तरह तैयार है। ऐसे में यह जानना अहम है कि आखिर कैसे बिहार में कभी अपने दम पर सरकार बनाने वाली कांग्रेस राज्य में 'सहारों' पर निर्भर हो गई? राजद और कांग्रेस के गठबंधन में साथ आने की कहानी क्या है? कब-कब दोनों दल एक साथ चुनाव लड़े और गठबंधन में दोनों का प्रदर्शन कैसा रहा? इसके अलावा कब-कब दोनों पार्टियां साथ नहीं आईं और तब उनकी सीटों का गणित क्या रहा? आइये जानते हैं...
बिहार में कैसे सहारों पर निर्भर हो गई कांग्रेस?
आजादी के बाद से ही कांग्रेस सिर्फ देश ही नहीं बल्कि राज्यों में भी मजबूत पार्टी के तौर पर उभरी। बिहार में तो कांग्रेस के बेरोकटोक शासन का आलम यह था कि 1947 से लेकर 1967 तक कांग्रेस लगातार शासन में रही। इस दौरान पार्टी के श्रीकृष्ण सिन्हा लगातार 13 साल तक मुख्यमंत्री पद पर रहे। हालांकि, 1961 में उनके निधन के बाद अगले छह साल में बिहार ने कांग्रेस के तीन और मुख्यमंत्री देखे।
1967 से 1968 का छोटा दौर छोड़ दें तो कांग्रेस 1977 तक बिहार पर राज करती रही। 1977 ही वह साल था, जब जनता पार्टी का उदय हुआ और पहली बार कांग्रेस को कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व से चुनौती मिली। हालांकि, इस दौर में भी अपनी तीखी राजनीति के जरिए कांग्रेस वापसी में कामयाब रही और मार्च 1990 तक शासन में सफल रही। जगन्नाथ मिश्र बिहार में कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री साबित हुए। उनके बाद न तो बिहार में कभी कांग्रेस अपना मुख्यमंत्री बना सकीऔर न ही कभी कांग्रेस अन्य दलों के मुकाबले ज्यादा सीटें हासिल कर पाई।
बिहार में कैसे लगातार घटता गया कांग्रेस का प्रभाव?
बिहार में कांग्रेस के 1990 के चुनाव में हारने की सबसे बड़ी वजह 1989 में भागलपुर में हुए दंगों को बताया जाता है। दरअसल, इस दंगे में सैकड़ों लोगों की मौत हुई थी। बिहार में तब कांग्रेस की सरकार थी। अपनी राजनीति को धार देने में लगे लालू प्रसाद यादव ने इन दंगों का इस्तेमाल कांग्रेस को घेरने के लिए शुरू किया। 1990 के विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज कर लालू यादव की जनता दल सत्ता में आई। 1988 में अलग-अलग दलों के विलय से बना जनता दल 1990 में 324 सीटों में से 122 जीतने में सफल रहा। वहीं, कांग्रेस 71 सीटों पर सिमट गई। यहां तक कि भाजपा को इस चुनाव में 39 सीटें मिलीं।
लालू ने मुख्यमंत्री बनने के बाद बिहार में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया और अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत कर ली। मुस्लिम और यादव उनके वोटबैंक का अहम हिस्सा बन गए। लालू के इस कदम की काट कांग्रेस फिर नहीं ढूंढ पाई और राज्य में चुनाव दर चुनाव लगातार यह वोट बैंक उससे दूर ही रहा। 1990 के बाद से हुए चुनावों की ही बात कर लें तो कांग्रेस के प्रदर्शन में लगातार गिरावट हुई और उसे सरकार बनाने का मौका तक नहीं मिला।
फिर कैसे साथ आए राजद और कांग्रेस?
कांग्रेस के प्रदर्शन में 1990 में आई गिरावट 1995 के विधानसभा चुनाव में भी जारी रही। इस बार जहां लालू की जनता दल ने अपनी स्थिति मजबूत करते हुए 167 सीटें हासिल कर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। वहीं, कांग्रेस अपने पिछले प्रदर्शन से भी नीचे आ गई। उसे चुनाव में सिर्फ 29 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा 41 सीट जीतने में कामयाब हो गई।
कांग्रेस के प्रदर्शन में चली इस गिरावट के बीच पार्टी को अपनी खोई हुई जमीन भाजपा के पास जाती हुई महसूस हुई। ऐसे में 1997 में जब लालू प्रसाद यादव पर चारा घोटाले के आरोप लगे और जनता दल की सहयोगी पार्टियों का दबाव बढ़ा तो लालू ने जनता दल को तोड़कर अपना अलग राष्ट्रीय जनता दल (राजद) बना लिया। उन्होंने बिहार का मुख्यमंत्री पद छोड़ा और इस पद पर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिठा दिया। हालांकि, विधानसभा में राजद के सामने बहुमत साबित करने की चुनौती पैदा हो गई। कांग्रेस ने इस मौके को लपका और राजद को समर्थन देने का फैसला किया। इस तरह जब बिहार में विश्वासमत पर वोटिंग हुई तो भले ही राजद 136 विधायकों के समर्थन से अपना पूर्ण बहुमत का आंकड़ा न दोहरा पाई हो, लेकिन कांग्रेस के समर्थन से उसने अपनी सरकार बचा ली। इस तरह कभी कट्टर प्रतिद्वंद्वी रहे लालू और कांग्रेस गठबंधन में साथ आए।
लोकसभा चुनावों में पहली बार साथ मिलकर लड़े दोनों दल
राजद और कांग्रेस के बीच बिहार विधानसभा में हुआ सहयोग आगे 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में भी जारी रहा। दोनों दलों ने पहली बार मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया। तब अविभाजित बिहार (झारखंड भी शामिल) में 54 लोकसभा सीटें हुआ करती थीं। लालू ने इनमें से कांग्रेस के लिए महज आठ सीटें छोड़ीं। कांग्रेस ने चार पर जीत भी हासिल कर ली।
फिर चलता रहा राजद-कांग्रेस में कभी हां-कभी न का खेल
1998 के लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन से आत्मविश्वास हासिल कर चुकी कांग्रेस ने 1999 के लोकसभा चुनाव में 13 सीटों पर चुनाव लड़ा। हालांकि, उसे जीत मिली सिर्फ दो सीटों पर। यहां से राजद और कांग्रेस में तल्खी बढ़ना शुरू हो गई।
2000: चुनाव अलग-अलग लड़े, नतीजों के बाद साथ आ गए
अब साल आ चुका था 2000, जब बिहार में विधानसभा चुनाव होने थे। कांग्रेस इस चुनाव में एक बार फिर अकेले ही खड़ी हुई। 2000 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव पर लगे चारा घोटाले के आरोपों का असर राजद की छवि पर भी पड़ा और पार्टी की सीटों की संख्या 124 पर आ गई। वहीं, भाजपा ने 67 सीटें हासिल कीं। इस चुनाव में नीतीश कुमार ने समता पार्टी को भी बल दिया और उसे 34 सीटें मिलीं। हालांकि, कांग्रेस का प्रदर्शन 1995 के 29 सीटों से भी खराब हो गया। उसे 2000 में सिर्फ 23 सीटें मिलीं।
आखिरकार बिहार में जोड़तोड़ की राजनीति शुरू हुई और समता पार्टी के नीतीश कुमार भाजपा और कुछ अन्य दलों के समर्थन से पहली बार मुख्यमंत्री बन गए। हालांकि, उनके पास कुल-मिलाकर भी महज 151 विधायकों का ही समर्थन था, जो कि बहुमत के आंकड़े 163 से कम ही था। इसके चलते नीतीश को 7 दिन में ही अपना पद छोड़ना पड़ा। इस बीच लालू ने कांग्रेस और कुछ अन्य दलों से बात कर के बहुमत लायक समर्थन जुटा लिया। इस तरह बिहार की कमान एक बार फिर राजद के हाथों में आ गई और राबड़ी देवी फिर मुख्यमंत्री बनीं।
झारखंड के बंटवारे के बाद 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में सहयोगी दल का धर्म निभाते हुए राजद-कांग्रेस ने साथ ही रहने का फैसला किया। साथ ही रामविलास पासवान भी लोकसभा में साथ आए। सीटों के बंटवारे में राजद ने 26 सीट लीं, वहीं लोक जनशक्ति पार्टी को 8 सीटें दीं। कांग्रेस को महज चार सीटें दी गईं। इनमें से तीन में कांग्रेस को जीत मिली। केंद्र में कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनी और गठबंधन के साथी लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान केंद्र सरकार में मंत्री बने।
फरवरी 2005: कांग्रेस-लोजपा ने राजद के अकेला छोड़ा, सबका काम बिगड़ा
केंद्र में अपनी सरकार बनने के बाद बिहार में कांग्रेस ने अकेले ही स्थानीय दलों को चुनौती देने की ठानी। कांग्रेस ने 2005 में विधानसभा चुनाव में राजद का साथ छोड़ दिया और लोजपा का हाथ थामा। फरवरी 2005 के चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और राजद (75 सीट) के सबसे बड़ा दल बनने के बावजूद रामविलास पासवान के न मानने से बिहार में सरकार ही नहीं बन सका। कांग्रेस को इसमें 10 सीटें हासिल हुई थीं।
अक्तूबर 2005: 'देर आए, पस्त आए' हुआ राजद-कांग्रेस का गठबंधन
राष्ट्रपति शासन के बाद बिहार में अक्तूबर 2005 में फिर चुनाव कराए गए। राजद और कांग्रेस ने फरवरी में हुए चुनाव से बेहतर प्रदर्शन और सरकार बनाने की मंशा के साथ गठबंधन किया। चुनाव में बार-बार गठबंधन बना रही राजद-कांग्रेस को झटका लगा और जहां लालू की पार्टी महज 54 सीटों पर सिमट गई। वहीं, कांग्रेस नौ सीटें हासिल कर पाई। इन चुनावों में एनडीए की सरकार बनी। यहीं से बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का दौर शुरू हुआ, जो अब तक जारी है।
इसके बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और राजद के बीच सीट बंटवारे पर बात नहीं बन पाई। पार्टी ने बिहार में अकेले चुनाव लड़ा और महज दो सीटें ही हासिल कर पाई। यानी एक बार फिर बिहार में कांग्रेस अपनी छाप छोड़ने में नाकाम रही।
2010: जब अस्तित्व के लिए 'आखिरी बार' अकेले लड़ी कांग्रेस
2010 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और राजद के बीच तल्खी जारी रही। कांग्रेस अकेले मैदान में उतरी। नीतीश कुमार के बेहतर काम से प्रभावित बिहार ने इस चुनाव में राजद की सीटें 54 के आंकड़े पर सिमट गईं, जबकि कांग्रेस महज 4 सीटें ही जीत पाई। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने फिर से राजद के साथ जाने का फैसला किया। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में हवा कांग्रेस के खिलाफ थी। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने बिहार में जबरदस्त जीत हासिल की। राजद ने इस चुनाव में 27 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे सिर्फ चार सीट मिलीं, जबकि कांग्रेस ने 12 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 2 सीटें हासिल कीं।
2015: एनडीए से अलग हुए नीतीश के नेतृत्व में साथ लड़ा महागठबंधन
साल 1995 के बाद कांग्रेस का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन 2015 के विधानसभा चुनाव में आया। दरअसल, इस बार नरेंद्र मोदी के विरोध में एनडीए से अलग हुए नीतीश कुमार ने राजद और कांग्रेस का साथ थामा। तीनों ही दलों ने साथ चुनाव लड़ते हुए अपनी दम पर पूर्ण बहुमत हासिल किया। इस चुनाव में राजद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और उसे 80 सीटें हासिल हुईं। कांग्रेस के लिए यह गठबंधन संजीवनी की तरह साबित हुआ और उसे 27 सीटों पर जीत मिली।
2019 के लोकसभा चुनाव में यूं तो नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा के साथ एनडीए से जुड़ गए, लेकिन राजद और कांग्रेस का गठबंधन जारी रहा। हालांकि, दोनों ही दलों को गठबंधन का कुछ खास फायदा नहीं हुआ और कांग्रेस को राज्य में महज एक सीट मिली। वहीं, राजद का खाता तक नहीं खुला।
2020: बरकरार रहा कांग्रेस-राजद का गठबंधन, एनडीए को मिली कड़ी चुनौती
2020 का विधानसभा चुनाव अपने आप में कई मायनों में खास रहा। सत्ताधारी एनडीए 125 सीट हासिल करने में सफल रही। वहीं, महागठबंधन 110 सीटों पर पहुंच गया। राजद इस चुनाव में 75 सीट के साथ सबसे बड़ा दल बना, वहीं कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा और महज 19 सीट ही हासिल कर पाई।
इस चुनाव में राजद-कांग्रेस के साथ रहने का असर यह हुआ कि सिर्फ कुछ विधायकों या एक पार्टी के इधर-उधर होने से पूरी सरकार पर खतरा पैदा होने की आशंका लगातार बनी रही। 2020 से 2025 के बीच दो बार ऐसा हुआ भी। नीतीश कुमार पहले एनडीए छोड़कर महागठबंधन का हिस्सा बने और सरकार बदल गई। इसके बाद 2024 में नीतीश ने फिर पलटी मारी और एनडीए के साथ जुड़ गए।